Friday 28 February 2014

"आप से सीखे पार्टियां "

                                                                                                                                                            राजनीती के नए अध्याय कि शुरुआत
''अरविंद केजरीवाल और टीम'' ने किया, जिसमें उनका साथ दिया यहाँ की आम जनता ने, उन्होंने राजनीती में बढ़चढ़ कर भाग लेने के लिए यहाँ के लोंगो में एक जोश का संचार किया। जिससे लोंगो ने सिस्टम को बदलने कि ठान ली, उनकी टीम के चंद युवा चेहरों ने सत्ता के गलियारों में तहलका मचा दिया। कई सालों से सत्ता को अपनी जागीर समझने वाले नेताओं के पैरों तले ज़मीन खिसक गयी।
"आम आदमी पार्टी" में लोंगो को उम्मीद दिखाई दी, इस पार्टी ने पहले दिल्ली में सत्ता आर्जित की, और अब लोकसभा चुनाव पर इसका ध्यान है। पढ़े लिखे वर्ग को राजनीती में आने पर जोर दिया, ''आम आदमी पार्टी'' राजनीती में एक क्रांति लेकर आई है।
जिस तरह से इस पार्टी ने दिल्ली में सरकार बनाई, और चंद दिनों के भीतर ही फैसले लेने शुरू किए थे, कुछ ही समय हुआ की, अस्थायी कर्मचारी और अन्य समस्याओं से परेशान लोग ''अरविंद केजरीवाल'' के पीछे पड़ गए।
क्या इससे से पहले 15  सालों तक सत्ता पर काबिज़ कांग्रेस की मुख्यमंत्री ''शीला जी'' के साथ ऐसा करने की हिम्मत जुटा पाए थे ?
''केजरीवाल'' खुले में सबकी समस्याओं को सुन रहे थे, तो इसका अर्थ यह नहीं की सभी राजनीतिक पार्टियाँ और विपक्षी नेताओं उनके काम में हस्तक्षेप करे।
दूसरी पार्टियाँ तो उन्हें ऐसे तंग कर रही थी कि, जैसे उन्होंने अपने शासन काल में, जनता की भलाई के लिए दिन-रात एक कर दिया हो। सत्ता किसी कि जागीर नहीं यह बात इस पार्टी के लोगों ने साबित कर दिया। आम आदमी पार्टी लोगों के लिए उम्मीद लेकर आई है। लेकिन जिस तरह से इनके नेताओं के साथ दुर्व्यवहार होता है ,तो कभी पार्टी दफ्तर पर तोड़फोड़ होता है ,उससे लगता है कि कुछ शैतानी ताकतें इस पार्टी को आगे बढ़ते हुए नहीं देखना चाहती हैं।
सच्चाई यह थी की ''आप'' ने ना तो ख़ुद माल खाया और न ही किसी को ऐसा करने मौक़ा दिया। यही दुःख विपक्षियों को सता रही थी। इसलिए उन्होंने सोचा की किसी तरह से इस रोड़े ''आप'' की सरकार को हटाई जाए। ''आप'' सरकार इसी कुटिल नीति कि भेंट चढ़ गई।
—सुगंधा झा 

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