Friday 25 April 2014

"महिलाएं और राजनीती "



देश में आधी आबादी राजनीती में अभी भी हाशिए पर है ,क्योंकि महिलाओं को राजनीती मे आने का मौका कम ही मिलता है। लेकिन जब भी मौका मिला वह सबसे आगे रही है। भारतीय संसद का दुर्भाग्य यह है कि संसद में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण दिलाने वाला विधेयक कुछ पार्टियोँ के चलते सालों से लंबित है। अफ़सोस की बात यह है की बड़ी पार्टियां दस से पन्द्रह फीसदी से अधिक महिलाओं को लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए टिकट नहीं  देती है। अब राजनीती मे महिलाओं ने रुचि लेनी आरभ्म की है ,पहले वह पति के मुताबिक ही मतदान करती थी ,लेकिन अब महिलाएं अपने मनमुताबिक अपने मताधिकार का  प्रयोग करनें लग़ी हैँ। 

तमाम कठिनाइयों और परेशानी के बावजूद महिलाएं राजनीती में आई ,बल्कि उन्होने पार्टियों और सरकारों को नेतृत्व प्रदान किया है,राजनीती में तमाम महिलाएं ऐसी है ,जिन्होंने अपनी धाक जमाई है और किसी भी क्षेत्र मे पुरुषो से पीछे नहीं हैं।  विधानसभा हो या लोकसभा गंभीर मुद्दों पर महिलाओं ने अपनी बात रखी। पिछले कुछ सालों में हुए चुनावों में महिलाओं ने अपने मत का सबसे अधिक प्रयोग किया है। 

आज भी भारतीय राजनीती में पुरुषवादी सोच हावी है ,हर पार्टी आम आदमी कि बात करती है ,जबकि आम औरत के बारे में  बोलने से सभी बचतें हैं। सियासी दलों के मुद्दों में महिलाओं के मुद्दें काफी पीछे होते हैं ,क्योंकि देश की बड़ी पार्टियां माहिलाओं को वोट बैंक नहीं मानतीं हैं। 1917 में पहली बार महिलाओं की राजनीती मे भागीदारी कि माँग उठी थी। सन 1930 में महिलाओं को मताधिकार मिला , हमारे देश में महिलांए भले ही तमाम उच्च पदों पर हों,

लेकिन राजनीती में अभी भी महिलाओं की कमी है, जो चिंता का विषय है ?

राजनेता और राजनैतिक पार्टियों को महिलाओं के प्रति अपनी सोच बदलनी ही पड़ेगी तभी देश का विकास सम्भव है। 



:::::::::::  सुगंधा झा 

Sunday 6 April 2014

"भारतीय राजनीती में फिल्मी सितारें "


भारतीय राजनीती में ग्लेमर का तड़का हमेशा से लगता रहा है। पहले यह प्रविर्ती कम थी ,दक्षिण की राजनीती की  बात करें तो वहा यह हमेशा प्रभावशाली रहे हैं,लेकिन कुछ चुनावों से पूरे भारतीय राजनीती परिदृश्य में राजनेताओं का दखल बढ़ता जा रहा है। सोलहवीं लोकसभा के लिए कई सितारें चुनाव मैदान में उतरें हैं ,लगभग सभी पार्टियों ने सितारों पर जमकर दावं खेला है। ग्लेमर की वजह से ही कई बार विपक्ष के मजबूत उम्मीदवार को हरा चुके हैं ,इसकी मिसाल अमिताभ बच्चन और गोविंदा हैं। 

कांग्रेस ने राज बब्बर को गाजियाबाद ,नगमा को मेरठ ,रविकिशन को जौनपुर से टिकट दिया है। भारतीय जनता पार्टी ने हेमा मालिनी को मथुरा ,किरण खेर को चंडीग़ढ़ ,परेश रावल को गुजरात ,तो मनोज तिवारी को दिल्ली से
उम्मीदवार बनाया हैं। वही आम आदमी पार्टी ने चंडीगढ़ से गुल पनाग को तो लखनऊ से जावेद जाफरी को मैदान में उतारा है। 

पार्टी नेताओं का कहना है कि फ़िल्मी सितारों के आने से कार्यकर्ताओं में जोश भरता है। समाज के लोगं उन्हें खुद से जोड़ पाते हैं ,लेकिन कई बार सितारें लोगों कि उम्मीदों पर खड़े नहीं उतर पाते हैं ,और वापस अपनी दुनिया में लौट जाते हैं।इस बार के लोकसभा चुनावों में जमकर सितारों को सीटें दी गयी हैं ,कई बार देखा गया है ,कि फ़िल्मी सितारों को ऐसी जगह से टिकट दिया जाता है ,जहां से पार्टियों के पास कोई बेहतर उम्मीदवार नहीं होते हैं। मथुरा से हेमा मालिनी और मेरठ से नगमा इसके उदाहरण हैं ,यही वजह है कि चंडीगढ़ से भाजपा उम्मीदवार किरण खेर का क्षेत्रीय कार्यकर्ताओं ने ही विरोध किया था। राज बब्बर और जनरल वीके सिंह पर भी बाहरी उम्मीदवार होने कि वजह से गाज़ियाबाद में परेशानियों का सामना करना पड़ा है। 

2004 के चुनाव में धर्मेन्द्र बीकानेर से भाजपा के टिकट पर चुनाव जीतें। गोविंदा ने कांग्रेस उम्मीदवार के तौर पर उत्तर मुम्बई के लोकसभा सीट से भाजपा के राम नाईक को हराया था। लेकिन जीत के बाद दोनों अभिनेताओं ने अपने क्षेत्र की  जनता को अपना चेहरा तक नहीं दिखाया था ,जिसे लेकर वहा के क्षेत्रीय लोगों में काफी गुस्सा था। बीकानेर और मुम्बई के लोगों ने तो धर्मेन्द्र और गोविंदा की  गुमशुदगी के पोस्टर तक क्षेत्र में लगा दिए थे। 

अब देखना दिलचस्प होगा कि सोलहवीं लोकसभा में कितने सीतारे संसद तक पहुँच कर जनता कि सेवा करते हैं या वह भी और सितारों कि तरह जनता को मुर्ख ही बनाते रहेंगे। 

::::::::: सुगंधा झा 

Thursday 3 April 2014

"क्षेत्रीय दलों की बढ़ती भूमिका "


राजनीती में दलों कि बढ़ती संख्या के कारण भ्रष्टाचार भी बढ़ रहा हैं। आज देश में बड़ी पार्टियों से ज्यादा क्षेत्रीय दलों की संख्या हैं। भारत  के हर राज्य में दो से अधिक क्षेत्रीय दल है ,क्षेत्रीय दलों  की  अहम भूमिका होती है। लोकसभा चुनावों के बाद सरकार बनाने और गिराने में।

2014 के लोकसभा चुनावों  की  स्थिति भी कुछ साफ नहीं दिखती। अभी तक किसी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिलने का असार नहीं दिखाई दे रहा है। चुनावों से पहले दोनों पार्टियां क्षेत्रीय दलों से गठबंधन में लगी रहती है ,क्योंकि क्षेत्रीय दलों की अपने राज्यों में काफी अच्छी पकड़ रहती हैं ,और अधिक से अधिक  सीटों पर जीत दर्ज की जा सकें ,देश में समय के साथ क्षेत्रीय दल भी मजबूत होते जा रहे हैं।

क्षेत्रीय दल  राष्ट्रीय दलों को कमज़ोर कर रही है,क्षेत्रीय पार्टियों के मत प्रतिशत में बढ़ोतरी जरुर हुई है।
 लेकिन इनकी सीटों कि संख्या में भी कमी आई  है। क्षेत्रीय दलों  केवल राष्ट्रीय दलों के वोट नहीं काटते बल्कि अन्य पार्टियों के मतों को भी कम करते हैं। 

क्षेत्रीय पार्टियों के नेताओं का युवा वर्ग में काफी क्रेज़ हैं ,क्योंकि यह विकास और नौकरियों की बात करती है। क्षेत्रीय दलों के मुखिया जन समस्याओं को सुलझाने के लिए अलग तरीकों का इस्तेमाल करते हैं ,इसलिए वह लोंगो में काफी लोकप्रिय है ,लेकिन एक बात और है कि भारत की क्षेत्रीय पार्टियां विदेश नीति को भी प्रभावित कर रही हैं। 

देश के सबसे बड़े लोकतंत्र में क्षेत्रीय दल मजबूत पार्टियों या स्थिर सरकार देने में रुकावटें पैदा करती हैं। 



::::: सुगन्धा झा