चुनाव नजदीक आतें ही देश में नेता अपना दल बदलने में जरा भी संकोच नहीं करते हैं।
लेकिन एक बात और है,कि इतने सालो के बावजूद यह लोगं आज भी जाति,धर्म ,संप्रदाय ,और क्षेत्र कि राजनीती से ऊपर नहीं उठ पाये हैं। आरोप प्रत्यारोप तो अपने चरम पर ही हैं ,इन सबके बीच विकास के मुद्दें पीछे रह गये हैं और जीतने कि चाहत आगे आ गई है।
सीटों कि दावेदारी में यह खेल खुलकर सामने आ जाता है ,आलाकमान भी बस नेताओं पर दबाव बनती है ,कि सीटें जीतकर लाओं। सचमुच देश के दिशानिदेशक देश को दिशा देने में असफल हैं ,और अपनी सन्तुष्टि के लिए राजनीती करके देश को बरबाद करने पर तुलें हैं।
लोकतंत्र के इस पड़ाव पर आम आदमी क्या करें और क्या नहीं यह प्रश्न उठना लाजिमी है ,आखिर क्यों हमारे नेताओं को चुनाव के वक़्त ही जनता कि याद आतीहैं ?
पांच साल तक वह जनता से दूरी बनाने में लगे रहते हैं। आखिर जनता किस वजह से इन नेताओं का एतबार करें की कुर्सी मिलते ही यह भी और नेताओं कि तरह नहीं होंगे।
:==== सुगंधा झा
जिसमें साल 2014 का लोकसभा चुनाव और भी रोमांचक होने वाला है,क्योंकि इस बार कि राजनीती मुद्दों पर नहीं बल्कि चेहरा विशेष की होकर रह गयी है।
16 वी लोकसभा चुनाव में कई बड़े दिग्गजों ने अपनी पार्टी साथ ही अपनी सीट भी बदली हैं। चुनाव नजदीक आते ही तमाम नेताओं में जनता के हिमायती दिखने कि होड़ लग जाती हैं। इन नेताओ के व्यवहार और बोलचाल से ऐसा लगने लगता है, कि कुर्सी पाते ही जनता के दुखों पर कोई जादुई छड़ी घुमाएंगे और सब दुःख दूर कर देंगे।
16 वी लोकसभा चुनाव में कई बड़े दिग्गजों ने अपनी पार्टी साथ ही अपनी सीट भी बदली हैं। चुनाव नजदीक आते ही तमाम नेताओं में जनता के हिमायती दिखने कि होड़ लग जाती हैं। इन नेताओ के व्यवहार और बोलचाल से ऐसा लगने लगता है, कि कुर्सी पाते ही जनता के दुखों पर कोई जादुई छड़ी घुमाएंगे और सब दुःख दूर कर देंगे।
लेकिन एक बात और है,कि इतने सालो के बावजूद यह लोगं आज भी जाति,धर्म ,संप्रदाय ,और क्षेत्र कि राजनीती से ऊपर नहीं उठ पाये हैं। आरोप प्रत्यारोप तो अपने चरम पर ही हैं ,इन सबके बीच विकास के मुद्दें पीछे रह गये हैं और जीतने कि चाहत आगे आ गई है।
सीटों कि दावेदारी में यह खेल खुलकर सामने आ जाता है ,आलाकमान भी बस नेताओं पर दबाव बनती है ,कि सीटें जीतकर लाओं। सचमुच देश के दिशानिदेशक देश को दिशा देने में असफल हैं ,और अपनी सन्तुष्टि के लिए राजनीती करके देश को बरबाद करने पर तुलें हैं।
लोकतंत्र के इस पड़ाव पर आम आदमी क्या करें और क्या नहीं यह प्रश्न उठना लाजिमी है ,आखिर क्यों हमारे नेताओं को चुनाव के वक़्त ही जनता कि याद आतीहैं ?
पांच साल तक वह जनता से दूरी बनाने में लगे रहते हैं। आखिर जनता किस वजह से इन नेताओं का एतबार करें की कुर्सी मिलते ही यह भी और नेताओं कि तरह नहीं होंगे।
:==== सुगंधा झा
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